अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

Language: English | हिन्दी | contact | site info | email

Search:

अनुसृजन

गंगा प्रसाद विमल

भोर

मन्द मन्द
लिखती है जैसे कविता ख़ुद को
उमगता है दिन भोर
अनस्तित्व से अस्तित्व में

तम का मौन त्याग
और उगता है आलोक

हर ओर उमग आते हैं हरे भरे
सूरज के खाद्यान

जिन्हें धरती से
कोई दूसरा अँधेरा नहीं मिटाना

किन्तु सिर्फ़ रात.

दर्पण

दर्पण हैं हम और दर्पण में चेहरा
लेते हैं पल-दर-पल निरंतर अनंतास्वाद

वेदना हैं हम और वेदना विरोधी भी हम
है मधुमय नित्यस्फ़ूर्त जल और वह घट भी
जो सतत झरता है हममें

जलती झाड़ी

लपटों में नहीं है जलती झाड़ी
है पर राख के भीतर
दमकती हुई अभी भी

चमक के नीचे
शायद ही महसूस होने वाली
बची है ठहरी हुई आवाज़.

© 2009 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.

This is an Open Access article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution License, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original work is properly cited.